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किनारा
तुम अपने आज में
मशगूल हो
मेरे पास
तुम्हारा कल सुरक्षित है।
तुम्हारे लिए
तुम्हारा अतीत व्यर्थ की वस्तु है
मगर मेरा भूत,
मेरा वर्तमान और
मेरा भविष्य
तुम्हारे
उस कल को ही समर्पित है।
कभी
तुमने मुझसे कहा था
तुम मेरा किनारा हो,
तुम ही मेरा मेरा जीवन,
मेरा जीने का सहारा हो।
और
तब से
मैं किनारा बन खड़ी हूँ
मगर तुम
नदी बन बह गए,
ढूँढ लिए नए किनारे
किन्तु मेरे
सब सहारे ले गए।
सच ही है –
किनारे क्या कभी
बहती धारा को
रोक पाए हैं
जल के आवेग के सम्मुख
वो सदा ही डूबे-डुबाये हैं।
मैं खड़ी हूँ
पथरायी आखें लिए
तुम्हारे
उस अतीत में डूबी
और
तुम अपने आज को भोगते हो।
सच बताओ,
क्या कुछ पल
कभी अपने
आज को भी सौंपते हो?
हर
चीज का अंत
निश्चित है
और निश्चय ही
किनारों का भी
अंत होगा तुम्हारे लिए
कभी न कभी
लौटना होगा तुम्हे भी
पांवों में चुभते
छाले लिए।
तुम्हें
झांकना ही होगा
अतीत के गर्भ में,
हम ही याद आएंगे/तुम्हे
तब
अपनों के सन्दर्भ में।
तब
स्मरण करोगे तुम,
कहाँ से
प्रारंभ की थी तुमने यात्रा,
तुमने पाए/ या
तुमने दिए
किस संताप की अधिक है मात्रा।
तब
तुम निश्चय ही
बढ आओगे
उस किनारे की ओर
जिसका
सहारा ले तुम
आगे बढ़ गए थे
और
वह किनारा
अब
एक युग
बन गया है।
मैं
जानती हूँ,
बढ़ते-बढ़ते मेरी ओर
तुम
रुक जाओगे
झिझकोगे,
निहारोगे मेरी ओर
नहीं
पकड़ पाओगे
शब्दों का छोर।
तब
मैं कहूँगी तुमसे
आओ
मत सकुचाओ,
मैं वही हूँ
तुम्हारा अपना किनारा
तुम्हारा सहारा,
मेरी बाहें मत थामो
मेरी गोद में आओ
मेरे सीने में छुप जाओ।
मैं तुम्हें दुलारुंगी
सीने से लगाऊंगी
नहीं दूँगी कोई उल्हाना
मैंने सीखा है बस
स्नेह बरसाना।
समय
की ठोकरें खा कर भी
मैं अपनी
धरती से जुडी रही
इसीलिए
धरती-माँ ने
मुझे
अपनाधैर्य,
अपनी गरिमा
प्रदान की है
और
मैंने
प्रेयसी जैसी अधीरता
छोड़
माँ जैसा गौरव
प्राप्त
कर लिया है।
अंजु आर्या
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